मन भावन सावन आय रे।
घनन घनन घन गरजि तरजि सखि! मोहिं विरहिनि डरपाय रे।
चम चम चम चम चमकि चमकि जनु, चपला मोहिं चिढ़ाय रे।
पिउ पिउ कहि पापी पपिहा सखि! जनु मोहिं जरिहिं जराय रे।
कोकिल कूकि कूकि कलकंठहिं, जनु कटु वचन सुनाय रे।
नाचि नाचि चहुँ ओर मोर गन, जनु तनु सुधि बिसराय रे।
जो ‘कृपालु’ पिय आय जाँय तो, जाँय सबै खिसियाय रे।।
घनन घनन घन गरजि तरजि सखि! मोहिं विरहिनि डरपाय रे।
चम चम चम चम चमकि चमकि जनु, चपला मोहिं चिढ़ाय रे।
पिउ पिउ कहि पापी पपिहा सखि! जनु मोहिं जरिहिं जराय रे।
कोकिल कूकि कूकि कलकंठहिं, जनु कटु वचन सुनाय रे।
नाचि नाचि चहुँ ओर मोर गन, जनु तनु सुधि बिसराय रे।
जो ‘कृपालु’ पिय आय जाँय तो, जाँय सबै खिसियाय रे।।
भावार्थ:–एक विरहिणी सखी कहती है कि मन को लुभाने वाला सावन का महीना आ गया, किन्तु प्रियतम नहीं आये। सखी! देख तो, बादल गरज–गरजकर मुझ विरहिणी को डरा रहे हैं। बिजली चमक–चमककर मानो मुझे चिढ़ा रही है। पापी पपीहा ‘पिउ पिउ’ कह–कहकर मानो मुझ जली को और जला रहा है। कोयल मधुर ध्वनि से कूक–कूककर मानो व्यंग्य वचन सुना रही है। चारों ओर मोरगण नाच–नाचकर मानो मेरी सुधि–बुधि भुला रहे हैं। ‘श्री कृपालु जी’ के शब्दों में सखी कहती है कि अगर ऐसे समय में प्रियतम आ जायँ तो सब के सब खिसिया जायँ।
(प्रेम रस मदिरा:-विरह–माधुरी)
#जगद्गुरु_श्री_कृपालु_जी_महाराज।
सर्वाधिकार सुरक्षित:-राधा गोविन्द समिति।
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