Wednesday, October 11, 2017

प्रारब्ध क्या होता है?
भगवान् हमारे अनंत पुण्य व अनंत पापों में से थोडा-थोडा लेकर हमारे किसी एक जन्म का प्रारब्ध तैयार करते हैं और मानव जीवन के रूप में हमें एक अवसर देते हैं ताकि हम अपने आनंद प्राप्ति के परम चरम लक्ष्य को पा लें।
प्रारब्ध सबको भोगना पड़ता है।
भगवद् प्राप्ति के बाद जब कोई जीव महापुरुष बन जाता है,
तब भगवान् उसके तमाम पिछले जन्मों के एवं उस जन्म के भी समस्त पाप-पुण्यों तो भस्म कर देते हैं, लेकिन वे उसके उस जीवन के शेष बचे हुए प्रारब्ध में कोई छेड़छाड़ नहीं करते।
इसका अभिप्राय यह है कि भगवान् को पा चुके मुक्त आत्मा संतों/भक्तों को भी अपना उस जन्म का पूरा प्रारब्ध भोगना ही पड़ता है।
उसमें इतना अंतर अवश्य आ जाता है कि अब वह नित्य आनंद में लीन रहने से किसी सुख-दुःख की फ़ीलिंग नहीं करता। लेकिन फिर भी एक्टिंग में उसे सब भोगना पड़ता है।

किसी के प्रारब्ध को मिटाना भगवान् के कानून में नहीं है।
वे लोग बहुत भोले हैं, जो यह समझते हैं कि अमुक देवी जी, अमुक बाबा जी अपनी कृपा से मेरे कष्ट को दूर कर देंगे। या मुझे धन, वैभव, पुत्र आदि दे देंगे।
जो प्रारब्ध में लिखा होगा, वह नित्य भगवान् को गालियाँ देने से भी अवश्य मिलेगा।
जो प्रारब्ध में नहीं लिखा होगा, वह दिन-रात पूजा पाठ करने से भी न मिलेगा।

भगवान् की भक्ति करने से संसारी सामान नहीं मिला करता, जीव के प्रारब्ध जन्य दुःख दूर नहीं होते, बल्कि भक्ति से तो स्वयं भगवान् की ही प्राप्ति हुआ करती है।
यह बात अलग है कि कोई मूर्ख अपनी भक्ति से भगवान् को पा लेने पर भी वरदान के रूप में उनसे उन्हीं को न माँगकर संसार ही माँग बैठे।
यहाँ यह बात भी विचारणीय है कि जिसको भगवान् की प्राप्ति हो चुकी, उसके लिए प्रारब्ध के सुख-दुःख खिलवाड़ मात्र रह जाते हैं।
...........जगद्गुरु श्री कृपालु जी महाराज।

एक साधक का प्रश्न :- भगवान् का चिन्तन कैसे होगा ?
श्री महाराज जी द्वारा उत्तर :- भगवान् का चिन्तन होता नहीं है , करना पड़ता है। जो कुछ होता है वह पहले का किया हुआ चिन्तन हो रहा है। संसार का चिन्तन बिना किये हो जाता है क्योंकि पहले का हमारा अभ्यास है। अब यदि भगवान् का चिन्तन करना है तो उसका अभ्यास प्रारंभ करना होगा। अभ्यास द्वारा वह भी होने लगेगा।

O mind! Absorb yourself in chanting the holy name of 'Shri RadhaRani'. This human body is short-lived and can be snatched away at any moment.
----- Jagadguru Shri Kripaluji Maharaj.

तुम लोग अपने मन को अपने शरण्य में रखो। परस्पर प्यार से रहो एवं स्वयं में दोष देखो, अपनी-अपनी सेवा करो। यदि मुझे सुख देना चाहते हो तो, सदा अपने मन को राग द्वेष रहित रखो एवं शरण्य से प्यार बढ़ाओ। मैं सदा तुम लोगो को याद करता हूँ, तथा एक-एक क्षण का आइडिया नोट करता हूँ। वेद से लेकर रामायण तक अनंत कोटि-कल्प तक अध्ययन करके देख लो यही पाओगे कि गुरु और भगवान एक ही है अत: गुरु सेवा ही सर्वश्रेष्ठ लक्ष्य है।
****जगद्गुरुत्तम श्री कृपालु जी महाप्रभु ****

People just lie that God fulfils their every desire, because they ignorantly think that any benefit received as a result of one’s destiny is due to God’s grace. There is some benefit in this belief because the individual realises God’s grace on this basis. But the harmful consequence of this belief is that, when the material desires are not fulfilled, this faith in God immediately disappears.
.....SHRI MAHARAJJI.

एक साधक का प्रश्न - क्या प्रेम किसी साधना से मिल सकता है ?
श्री महाराज जी द्वारा उत्तर : असंभव ।श्री कृष्ण का प्रेम नित्य सिद्ध है , वो साधन साध्य नहीं है । कोई भी साधन श्री कृष्ण प्रेम का मूल्य नहीं हो सकता । क्योंकि वो प्रेम तो दिव्य है जिसके स्वयं श्री कृष्ण भी आधीन रहते हैं । तो कौन साधन से कोई उसको पा लेगा ? क्योंकि साधन जो भी होगा , वो इन्द्रिय ,मन , बुद्धि से होगा अर्थात मायिक होगा । उस मायिक साधना से दिव्य वस्तु कैसे मिलेगी ? भगवान् ही नहीं , उनका दर्शन भी असंभव है फिर उनका प्रेम तो और भी अधिक मूल्यवान है।

JAGADGURU SHRI KRIPALUJI MAHARAJ......!!!
Jagadguru Shree Kripaluji Maharaj -- is considered the supreme acharya and Jagadguru of the present age. He accepts the philosophy of achintya-bhedabhed-vad, as well as the philosophy of Jeev Goswami more specifically, that is, the reconciled philosophies of all the acharyas (teachers) who teach the path of selfless bhakti for the realization of Divine love.
He has not formed his separate religion. He teaches the path of selfless bhakti to Radha Krishn which itself is the eternal single religion to experience the divine bliss of braj ras and nikunj ras of Golok and Divine Vrindaban. Maharaji Kripalu has not written a separate philosophy. He recognizes that of Jeev Goswami and says that the Bhagwatam is the complete and final scriptural authority and is the explanation of the Brahma Sutra.
He says that the desired goal of a soul is to receive the selfless and divine love of Radha Krishn, the soul of your soul. Knowing this you only have to develop a desire for this vision and love by strengthening your faith.
Keeping away from bad associations and chanting. That’s all you have to do. You just remember that Radha Krishn are truly yours and you only belong to them. They are most kind and causelessly merciful; they will do the best for you. Shree Maharajji did not relate the divine lineage of this path, like the other acharyas did, because it is directly introduced in the world by Shree Raseshwari Radha Rani and Krishn during Their descension period. It has been also taught by the rasik saints.
Shree Maharajji says simply that the ultimate goal of a soul is to receive the selfless Divine love of Radha Krishn and to serve them in Their Divine abode. This is attained through the teaching of a true rasik Saint and the complete purification of the heart through bhakti.
Maharaji Kripalu has detailed his entire philosophy of God’s bliss, God-realization and devotion in his writings that are meant to communicate with everyone, from an ordinary literate person to a highly educated scholar. He has revealed an enormous amount of devotional material through his speeches and writings, including teachings, philosophies, covering devotion, God realization and grace, saint’s grace, classes of divine bliss, and the supremacy of the Divine love of Radha Krishn. He also produces guidelines for all kinds of devotees, as well as devotional procedures, leela songs (pad), songs (pad) of humbleness, and the chants of the name, form, virtues, and the leelas of Radha Krishn.
JAI SHRI RADHEY.

अगर आपने वास्तविक गुरु को त्याग दिया,गुरु का अपमान कर दिया या गुरु के साथ छल-कपट किया तो भगवान करोड़ों कोस दूर हो जायेंगे। तुम चाहे अब दिन रात आँसू बहाओ फिर। भगवान सह नहीं सकते अपने भक्त का अपमान। सदा सावधान रहो, जैसी भक्ति भगवान की हो, ठीक वैसी ही भक्ति उनके भक्त यानि वास्तविक महापुरुष की भी करनी ही होगी।

श्री महाराजजी से प्रश्न:
साधना में ऐसा कौन सा सिद्धान्त प्रमुख है जिससे साधक जल्दी आगे बढ़ सकता है भगवान की तरफ? क्या सेवा अच्छी है या भजन कीर्तन?

श्री महाराजजी द्वारा उत्तर:
सेवा तो अंतिम लक्ष्य है ही है। इसमें सारी इंद्रियाँ लगी रहती है। और भजन कीर्तन तो केवल मन से होता है। और भजन कीर्तन जो है उसके लिए एकांत में,अलग समय चाहिए। और सेवा तो संसार का कर्म करते हुए भी हम 24 घंटे कर सकते हैं। इसलिए सेवा का अधिक महत्व है। सेवा हरी-गुरु निमित्त हो ,शर्त ये है।

गलती न मानने का सबसे बड़ा कारण यह है कि लोग अपने को बुद्धिमान कहलाना चाहते हैं । किसी को अगर कोई मूर्ख कहे , यह किसी को बर्दाश्त नहीं होता । अगर कोई विवेकपूर्वक सोचे तो सब अल्पज्ञ ही तो हैं । सब लोगों के पास जो बुद्धि है वह काम चलाऊ ही तो है । गुरु ने भी दोष बताया तो उलटा सोचने लगा । यह प्रमुख गलती है । चाहिये तो शिष्य को यह कि अगर कोई दोष बताया जाय तो निरन्तर उसका चिन्तन करे और भविष्य में वह न होने पाये । कोशिश करने पर अवश्य ही दोष कम होते हैं , लेकिन कोशिश कम होती है अतः दोष भी कम ठीक होते हैं। बराबर वाले और बड़ों से व्यवहार करते समय अपनी वाणी पर कन्ट्रोल रखें , जवाब न दें । गुरु के प्रति तो यही सोचना काफी है कि गलती तो हमारी ही होगी ।
----जगद्गुरु श्री कृपालु जी महाराज।

माया के कारण अपने वास्तविक स्वरूप को भूल जाने एवं अपने को शरीर मान लेने के कारण मैं अनादिकाल से निरंतर संसार में ही अनुरक्त था ।
गुरु ने इस मोह - निद्रा से जगाकर यह ज्ञान कराया कि तेरी अंशी श्री राधा ही एक मात्र तेरी हैं ।

---जगद्गुरु श्री कृपालु जी महाराज ।
व्यर्थ चिंता मत करो , तुम सिर्फ हरि-गुरु का रुपध्यान करो और रो रोकर पुकारो मैं आ जाऊंगा ।
जैसे मैंने तुम्हें इस बार ढूंढ लिया था वैसे आगे भी ढूंढ लूंगा; यह मेरा काम है आप उसकी चिंता न करें ।
तुम सिर्फ निष्काम भाव से हरि-गुरु में ही अनन्य होकर साधना करते रहो , मेरा काम मै करुंगा ही जैसे सदा करते आया हूॅ, तुम अपना काम (मेरे द्वारा दिऐ उपदेशो के अनुसार साधना) करते रहो बस !! बाकी सब मेरा काम है मैं स्वयम् कर लूंगा, दृढ़ विश्वास करके साधना-पथ पर चलते रहो ।

----- तुम्हारा 'महाराजजी' ।

जब तक माया के अधीन हो तब तक क्यों सोचते हो कि मैं प्रशंसा के योग्य हूँ । जब तक तुम शरणागत नहीं हुए तब तक तुम्हे अहंकार किस बात का ? किसी भी जीव का वास्तविक स्वरूप श्री कृष्ण दासत्व ही है । श्री कृष्ण के दास बन जाओ फिर खूब अहंकार करो । हम छूट देते हैं ।लेकिन उस समय तुम अहंकार कर ही नहीं सकते। भगवत्प्राप्ति से पहले रहता है अहंकार। अतः सदा सावधान रहो।
---------जगद्गुरुत्तम श्री कृपालु महाप्रभु।


Grace and God are one, just like the Divine Bliss and God are one. It means that God Himself is the form of Grace and God Himself is the form of the Bliss. Grace is such a power of God with which all of His absolute and unlimited virtues are revealed. It is the Grace of God that makes a Saint experience His absolute Bliss, beauty and love; and it is the same power of Grace through which a Saint imparts God realization to his disciple. God and Grace are one and the same. So wherever God is, Grace is there.
.......JAGADGURU SHRI KRIPALUJI MAHARAJ.


मन के बहकावे में न आया करो। मन ने बड़े - बड़े योगियों को बर्बाद कर दिया। अगर मन से हार मान लिया तो वह आदमी तुरन्त पागल हो सकता है, आत्महत्या भी कर सकता है।
***जगद्गुरु श्री कृपालु जी महाराज***
मन एवं सांसारिक पदार्थ सजातीय होने के कारण एक दूसरे के सहयोगी हैं।
----श्री महाराजजी।

उस ईश्वर को युगों तक परिश्रम करके भी कोई नहीं जान सकता है किंतु उस ईश्वर की जिस पर कृपा हो जाती है वह उसे पूर्णतया जान लेता है एवं कृतार्थ हो जाता है। सर्वात्म-समर्पण से मुक्ति एवम् भगवत्कृपा का लाभ हो सकता है। हमें ईश्वर के शरणागत हो जाना है ऐसी शरणागत के आधार पर ही ईश्वर कृपा निर्भर है। जो-जो जीव आत्माएं उसके शरणागत हो गई, वह-वह अपने परम चरम लक्ष्य परमानंद को प्राप्त कर चुकी हैं एवम् जो शरणागत नहीं हुई है उन्ही के ऊपर ईश्वर की कृपा नहीं हुई है एवं वही अपने लक्ष्य से वंचित होकर 84 लाख योनियो में काल, कर्म, स्वभाव, गुणाधीन होकर चक्कर लगा रही हैं।
---- जगद्गुरु श्री कृपालु जी महाराज।

Spend every second of your life in Meditation(Sadhana) and in service of God and Guru. You may not have today's opportunity again, you may not have human body again. Right now, you have the human body and have also found the Guru. Then why are you careless?
The golden opportunity that you have will not come again so easily, Think about it.
एक साधक का प्रशन:- भगवान् सर्वव्यापक होते हुए भी अभी तक क्यों नहीं मिले ?

श्री महाराज जी द्वारा उत्तर:- तुमने चाहा नहीं ! चाहने में अनेक स्तर हैं । ऐसा चाहो कि उसके पाये बिना रहा न जाय । उससे मिले बिना एक क्षण युग के समान लगे । जैसे - जैसे व्याकुलता बढ़ेगी तुम भगवान् के पास पहुँचते जाओगे। व्याकुलता ही श्याम मिलन का आधार है । अपने को अधम पतित मान कर मनुहार करो और आँसू बहाकर भगवान् के निष्काम प्रेम कि याचना करो । संसार न माँगो। तब भगवान् महापुरुष के द्वारा अपना दिव्य स्वरूप दिखायेंगे।

कृपासिन्धु गुरुवर तो किसी से कुछ अपेक्षा ही नहीं करते वो तो पुनः-पुनः यही कहते हैं कि मुझे प्रसन्न करना चाहते हो, मुझे बधाई देना चाहते हो तो एक ही प्रतिज्ञा करो-
श्यामा श्याम नाम रुप लीला गुण धामा ।
गाओ रोके रुपध्यान युक्त आठों यामा ॥

हर क्षण , हर पल, श्री महाराजजी का चिन्तन, मनन, स्मरण यही रहता है किस प्रकार कलियुग में इन जीवों का निरन्तर हरि-गुरु स्मरण हो और ये निष्काम अनन्य भक्ति द्वारा शीघ्रातिशीघ्र अपने लक्ष्य को प्राप्त करें।