मुक्ति
एवं बंधन में मध्यस्थ कारण केवल मन ही है । अतएव हमें मन को ही ईश्वर के
शरणागत करना है । मन के शरणागत होने पर सबकी शरणागति स्वयमेव हो जायेगी ।
हम लोग शारीरिक क्रियादिकों से तो ईश्वर की शरणागति सदा ही करते हैं किन्तु
मन की आसक्ति जगत में ही रखते हैं अतएव मन की आसक्ति के अनुसार जगत की ही
प्राप्ति होती है । यह अटल सिद्धांत है कि मन की आसक्ति जहाँ होगी , बस उसी
तत्व की प्राप्ति होगी । यदि हम शारीरिक कर्म अन्य करें एवं मानसिक आसक्ति
अन्यत्र हो तो बस मन की आसक्ति का ही फल मिलेगा
। अर्थात यदि शरीरेंद्रियों से हम शुभ या अशुभ कर्म करें एवं मन से कुछ भी
न करें , केवल ईश्वर- शरणागत ही रहें तो कर्म का फल न मिलेगा , केवल
ईश्वरीय लाभ ही मिलेगा । अतएव मन की शरणागति ही वास्तविक शरणागति है । जैसे
पैरों को बांधकर मार्चिंग नहीं हो सकती , मुख बंद करके स्पीच नही हो सकती ,
वैसे ही मन को अन्यत्र आसक्त करके ईश्वरोपासना भी नही हो सकती । मन की
आसक्ति ही ईश्वरीय क्षेत्र में 'उपासना' कहलाती है एवं जगत क्षेत्र में
'आसक्ति' कहलाती है ।
.......जगद्गुरु श्री कृपालु जी महाराज।
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