Monday, October 5, 2015
एक
बात याद रखो बस, अन्तःकरण का सम्बन्ध भगवान से और गुरु से हो। केवल सिर को
पैर पर रख देने से काम नहीं बनेगा,आरती कर लेने से काम नहीं बनेगा,दक्षिणा
दे देने से काम नहीं बनेगा। ये सब हेल्पर है। तुम्हारे पास जो कुछ है
दो,सब ठीक है। सर्व समर्पण करना है गुरु को ,भगवान को, लेकिन इतने मात्र से
काम नही बनेगा। 'अनुराग' सबसे प्रमुख है ,अन्तःकरण से प्यार।
-------जगद्गुरु श्री कृपालु जी महाराज।
-------जगद्गुरु श्री कृपालु जी महाराज।
Do
not think that since you have not seen Lord Krishna, you cannot
visualise Him. Do not worry that perhaps you will make a mistake. The
merciful Lord Krishna gives us absolute freedom when it comes to
visualising Him. Think Him to be tall or short; imagine Him to be fair,
dark or blue. Make His hair short or long; curly or straight. Make Him a
child, a teenager or an adult. Give Him a traditional or a modern look.
Put heavy ornaments on Him or none at all; the choice is yours. The
important thing is to think of Him as you chant.
.......SHRI MAHARAJJI.
.......SHRI MAHARAJJI.
A
soul very rarely receives a human birth. And that too, is due to God's
Grace. Of those who have received a human birth, even rarer are those
who are true seekers of God's Love. But just possessing these two is not
enough to succeed spiritually unless you also have the association of a
true Saint. If all three occur in the same birth, that soul's spiritual
success is virtually guaranteed. To this end, the Saint gives many
opportunities for his association.
--- Jagadguru Shree Kripaluji Maharaj.
--- Jagadguru Shree Kripaluji Maharaj.
संसार प्रत्यक्ष है , यह दिखाई नहीं पड़ता है , आँख से। इसके शब्द सुनाई पड़ते हैं ,कान से।
माँ को देखा , बाप को देखा , बीबी को देखा। उसकी आवाज सुना मीठी - मीठी। कान को मीठी लगी आवाज। उसका स्पर्श किया। ये जो सब विषय मिल रहे हैं प्रत्यक्ष , इससे हमारा मन खिंच जाता है।
और भगवान् के बारे में ? वो तो तुलसी , सूर , मीरा , कबीर , शंकराचार्य , निम्बार्काचार्य , वल्लभाचार्य , लैक्चर दे रहे हैं। किताबों में पढ़ रहे हैं गीता , भागवत , रामायण। सामने तो दिखाई नहीं पड़ते भगवान्।
यह अंतर है। प्रत्यक्ष में जल्दी आकर्षण होता है। वह परोक्ष है भगवान् , इसलिए इमीडिएटली अटैचमेन्ट नहीं हो सकता।
..........जगद्गुरु श्री कृपालु जी महाप्रभु।
माँ को देखा , बाप को देखा , बीबी को देखा। उसकी आवाज सुना मीठी - मीठी। कान को मीठी लगी आवाज। उसका स्पर्श किया। ये जो सब विषय मिल रहे हैं प्रत्यक्ष , इससे हमारा मन खिंच जाता है।
और भगवान् के बारे में ? वो तो तुलसी , सूर , मीरा , कबीर , शंकराचार्य , निम्बार्काचार्य , वल्लभाचार्य , लैक्चर दे रहे हैं। किताबों में पढ़ रहे हैं गीता , भागवत , रामायण। सामने तो दिखाई नहीं पड़ते भगवान्।
यह अंतर है। प्रत्यक्ष में जल्दी आकर्षण होता है। वह परोक्ष है भगवान् , इसलिए इमीडिएटली अटैचमेन्ट नहीं हो सकता।
..........जगद्गुरु श्री कृपालु जी महाप्रभु।
हमारे
गुरुदेव काशी विद्वत परिषद द्वारा घोषित 'जगद्गुरुत्तम' पदवी से विभूषित
सर्वमान्य 'जगद्गुरु' हैं किन्तु मजे की बात यह है कि हमारे गुरुदेव को
किसी ने भी अब तक किसी को भी शिष्य बनाते नहीं देखा,यह भी आजतक उनको किसी
से कहते नहीं सुना गया कि 'तू मेरा शिष्य है',या अब से तू मेरा शिष्य हो
गया जब की भारतवर्ष में अनेक गुरुओ द्वारा कान फूंकना,मंत्र देना,शिष्य
बनाना एक साधारण बात है,साधारण क्या,competition चल रहा है खुले आम। कोई
रोकने,टोकने,बोलने वाला नहीं उनको,एक हमारे गुरुवर के अलावा।
हमारे गुरु के दर पर जो भी आये उसका एड्मिशन हो जाता है। डी.लिट।ज्ञानी,विज्ञानी,अंगूठा छाप,टेढ़ामेढ़ा,कोई भी हो कैसा भी हो,सबको एक ही क्लास में एड्मिट कर लिया जाता है।यहाँ अनेक व्यक्ति ऐसे भी हैं जो वर्षों से श्री महाराजजी के सत्संग में आते जाते रहे हैं:साधना हाल क्लास में बैठते रहें,परंतु श्री गुरुदेव को अपना गुरुदेव नहीं माना खूब परखने के बाद ही मन से मानना प्रारम्भ किया कि ये वोही हैं जिनकी हमे तलाश थी,हमारे गुरुदेव हैं।यह हमारे ऊपर निर्भर करता है कि मन से गुरु मानना है,ऊपरी आडंबर से कुछ काम बनने वाला नहीं है। हम जितनी मात्रा में जितने परसेंट गुरु की शरणागति करेंगे उतने ही परसेंट गुरुदेव भी हमे अपनाएँगे। हम 100 परसेंट शरणागति तो करते नहीं और चाहते हैं वो हमे अपना शिष्य मान ले।
वे तो हमारे सदा से सुहृदय हैं,हितकारी हैं,माता-पिता जैसा प्यार तो हमे प्रारम्भ से ही मिलने लगता है,चाहे हम उन्हे गुरु माने या नहीं। रूपध्यान करते हुए भगवन नाम संकीर्तन हम सब की साधना है। 'गुप्त मंत्र' जैसी कोई वस्तु उनके दरबार नहीं है। न ही यहाँ कोई गुरुडम है।हमारे गुरुदेव का कहना है कि किसी श्रोत्रिय ब्रह्मनिष्ठ भगवत प्राप्त महापुरुष को ही गुरु रूप में धारण करना चाहिये। हम साधको को निजी अनुभव है कि ये वो ही 'श्रोत्रिय ब्रह्मनिष्ठ भगवतप्राप्त महापुरुष' ही हैं। वे सदा अपने आप को छिपाते हैं,उनको पहचानना कठिन है,किन्तु अपने शरणागत को तो उन्हें अपना स्वरूप उसके अनुरूप दिखलाना ही पड़ता है,उचित वातावरण मिलते ही जन साधारण के बीच भी उनका स्वरूप बरबस प्रकट हो ही जाता है।श्री महाराजजी को सदा 24 घंटे जिसने भी देखा है यही अनुभव है कि किसी न किसी रूप में वे हरि भजन करवा रहे होते हैं। उनके सत्संग में संसार तो एकदम भूल जाता है साधक,हरि-गुरु से ऑटोमैटिक अनुराग,एवं संसार से वैराग्य अपने आप होने लगता है।संसार की सच्चाई स्वत: ही साफ-साफ समझ आने लग जाती है।
हमारे गुरु के दर पर जो भी आये उसका एड्मिशन हो जाता है। डी.लिट।ज्ञानी,विज्ञानी,अंगूठा छाप,टेढ़ामेढ़ा,कोई भी हो कैसा भी हो,सबको एक ही क्लास में एड्मिट कर लिया जाता है।यहाँ अनेक व्यक्ति ऐसे भी हैं जो वर्षों से श्री महाराजजी के सत्संग में आते जाते रहे हैं:साधना हाल क्लास में बैठते रहें,परंतु श्री गुरुदेव को अपना गुरुदेव नहीं माना खूब परखने के बाद ही मन से मानना प्रारम्भ किया कि ये वोही हैं जिनकी हमे तलाश थी,हमारे गुरुदेव हैं।यह हमारे ऊपर निर्भर करता है कि मन से गुरु मानना है,ऊपरी आडंबर से कुछ काम बनने वाला नहीं है। हम जितनी मात्रा में जितने परसेंट गुरु की शरणागति करेंगे उतने ही परसेंट गुरुदेव भी हमे अपनाएँगे। हम 100 परसेंट शरणागति तो करते नहीं और चाहते हैं वो हमे अपना शिष्य मान ले।
वे तो हमारे सदा से सुहृदय हैं,हितकारी हैं,माता-पिता जैसा प्यार तो हमे प्रारम्भ से ही मिलने लगता है,चाहे हम उन्हे गुरु माने या नहीं। रूपध्यान करते हुए भगवन नाम संकीर्तन हम सब की साधना है। 'गुप्त मंत्र' जैसी कोई वस्तु उनके दरबार नहीं है। न ही यहाँ कोई गुरुडम है।हमारे गुरुदेव का कहना है कि किसी श्रोत्रिय ब्रह्मनिष्ठ भगवत प्राप्त महापुरुष को ही गुरु रूप में धारण करना चाहिये। हम साधको को निजी अनुभव है कि ये वो ही 'श्रोत्रिय ब्रह्मनिष्ठ भगवतप्राप्त महापुरुष' ही हैं। वे सदा अपने आप को छिपाते हैं,उनको पहचानना कठिन है,किन्तु अपने शरणागत को तो उन्हें अपना स्वरूप उसके अनुरूप दिखलाना ही पड़ता है,उचित वातावरण मिलते ही जन साधारण के बीच भी उनका स्वरूप बरबस प्रकट हो ही जाता है।श्री महाराजजी को सदा 24 घंटे जिसने भी देखा है यही अनुभव है कि किसी न किसी रूप में वे हरि भजन करवा रहे होते हैं। उनके सत्संग में संसार तो एकदम भूल जाता है साधक,हरि-गुरु से ऑटोमैटिक अनुराग,एवं संसार से वैराग्य अपने आप होने लगता है।संसार की सच्चाई स्वत: ही साफ-साफ समझ आने लग जाती है।
World
only has miseries stored for us, it's not a negative approach! It's
very much positive, as continuous thinking of same with "healthy
mindset" leads us on the path of true knowledge and finally towards
Devotion. Spasmodic happiness are also bad as when they end they leave
behind sorrow. So let us realise the futility of this material arena and
excel in devotion.
...........SHRI MAHARAJJI.
...........SHRI MAHARAJJI.
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