धन्य सोइ जोइ स्वारथ पहिचान |
स्व शब्दार्थ ‘आत्मा’ जानिय, अर्थ अर्थ सब जान |
परमात्मा को अंश आत्मा, वेद पुरान बखान |
आत्महिं अर्थ-सिद्धि परमात्महिं, इहै ज्ञान को ज्ञान |
परमात्मा रस-रूप वेद कह, सोइ रस स्वारथ मान |
... सोइ स्वारथरत जोइ ‘कृपालु’ रत, चरनन श्याम सुजान ||
भावार्थ- संसार में वही भूरि-भाग्यशाली है जो स्वार्थ को पहिचान ले | ‘स्व’ शब्द का अर्थ है ‘आत्मा’ एवं ‘अर्थ’ शब्द का मतलब है ‘लक्ष्य’ | इस प्रकार ‘स्वार्थ’ शब्द का अर्थ हुआ आत्मा के लक्ष्य की प्राप्ति | ‘आत्मा’ वेद-पुराणादि द्वारा प्रमाणित परमात्मा का अंश है | अतएव आत्मा की लक्ष्यप्राप्ति परमात्मा के द्वारा ही संभव है | बस, यही जानने योग्य ज्ञान है | वेदादिकों के द्वारा यह निर्विवाद सिद्ध है कि परमात्मा ‘रसस्वरूप’ है, अतएव वही दिव्य रस-रूपी लक्ष्य प्राप्ति ही सच्चा स्वार्थ है | ‘श्री कृपालु जी’ कहते हैं कि मोटी अक्ल वाले इतना ही समझ लें कि वही सच्चा स्वार्थी है जो श्यामसुन्दर के चरण कमलों में निष्काम भाव से प्रेम करता है | शेष स्वार्थ दैहिक होने के कारण नश्वर हैं; अतएव उनसे आत्यंतिक-दु:ख निवृति अथवा आत्यंतिक-सुख–प्राप्ति रूपी परम चरम लक्ष्य अनन्त काल में भी नहीं प्राप्त हो सकता |
(प्रेम रस मदिरा सिद्धान्त-माधुरी)
जगद्गुरु श्री कृपालु जी महाराज
सर्वाधिकार सुरक्षित- राधा गोविन्द समिति.
स्व शब्दार्थ ‘आत्मा’ जानिय, अर्थ अर्थ सब जान |
परमात्मा को अंश आत्मा, वेद पुरान बखान |
आत्महिं अर्थ-सिद्धि परमात्महिं, इहै ज्ञान को ज्ञान |
परमात्मा रस-रूप वेद कह, सोइ रस स्वारथ मान |
... सोइ स्वारथरत जोइ ‘कृपालु’ रत, चरनन श्याम सुजान ||
भावार्थ- संसार में वही भूरि-भाग्यशाली है जो स्वार्थ को पहिचान ले | ‘स्व’ शब्द का अर्थ है ‘आत्मा’ एवं ‘अर्थ’ शब्द का मतलब है ‘लक्ष्य’ | इस प्रकार ‘स्वार्थ’ शब्द का अर्थ हुआ आत्मा के लक्ष्य की प्राप्ति | ‘आत्मा’ वेद-पुराणादि द्वारा प्रमाणित परमात्मा का अंश है | अतएव आत्मा की लक्ष्यप्राप्ति परमात्मा के द्वारा ही संभव है | बस, यही जानने योग्य ज्ञान है | वेदादिकों के द्वारा यह निर्विवाद सिद्ध है कि परमात्मा ‘रसस्वरूप’ है, अतएव वही दिव्य रस-रूपी लक्ष्य प्राप्ति ही सच्चा स्वार्थ है | ‘श्री कृपालु जी’ कहते हैं कि मोटी अक्ल वाले इतना ही समझ लें कि वही सच्चा स्वार्थी है जो श्यामसुन्दर के चरण कमलों में निष्काम भाव से प्रेम करता है | शेष स्वार्थ दैहिक होने के कारण नश्वर हैं; अतएव उनसे आत्यंतिक-दु:ख निवृति अथवा आत्यंतिक-सुख–प्राप्ति रूपी परम चरम लक्ष्य अनन्त काल में भी नहीं प्राप्त हो सकता |
(प्रेम रस मदिरा सिद्धान्त-माधुरी)
जगद्गुरु श्री कृपालु जी महाराज
सर्वाधिकार सुरक्षित- राधा गोविन्द समिति.