Friday, April 4, 2014

अरे कृत्घन मन! प्रभु ने तुझे प्रेम मार्ग का पथिक बनाया है, फिर तुझ में घृणा, अहंकार, ईर्ष्या, द्वेष जैसी मलिन वृत्तियों का वास क्यों? क्या यह अनवरत नामापराध की क्षृंखला तुझे अकारण-करुण, कृपासिन्धु, दीनबंधु स्वामी, सखा, सुत, पति रूप महाप्रभु के श्री चरणों से प्रथक न कर देगी। फिर तू कहाँ जायेगा? हे मन! तेरे जैसे पतित के लिए यदि कोई दूसरा स्थान नहीं ,तो अब बहुत हो गया, छोड़ दे अपनी जन्म-जन्म की आदत और अपने एकमात्र प्यारे श्री महाराजजी के चरणों का प्रेम-पुजारी बनकर उनकी कोटी-कोटी कृपाओं का चिंतन करते हुए एकाग्र,अनन्य व निष्काम भाव से उनकी सेवा में लग जा।

No comments:

Post a Comment