Saturday, April 5, 2014

प्रेम सर्वत्र कोमल होता है, किन्तु उसमें एक दृढ़ पकड़ होती है। वह प्रियतम को छोड़कर नहीं रह सकता और न ही वह भक्ति के आनंद को अपने तक ही सीमित रखता है। वह अपने सर्वस्व , अपने प्रियतम प्रभु की सेवा बड़े प्रेम से करता है। उसका प्रत्येक कर्म सेवा ही होती है। उसी प्रकार अपनी समस्त इन्द्रियों को उनकी सेवा में लगा देना ही भक्ति है। अपनी सेवा, अपने समपर्ण से प्रभु को प्रसन्न करना ही भक्ति है।
--------जगद्गुरु श्री कृपालु जी महाराज।

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